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शौर्य दिवस (भीमा कोरेगांव) 1 जनवरी 1818

January 1, 2021SD.RAOUncategorized

1 जनवरी 1818 शौर्य दिवस के बारे में डॉक्टर अंबेडकर के विचार-

पेशवा की राजधानी पूना में जब गांव में जब कोई सवर्ण हिंदू आम रास्ते से जा रहा हो तो किसी अछूत को उस रास्ते से जाना वर्जित था अछूत को अपनी कलाई या अपने गले में काला धागा पहनना होता था ताकि अछूत की पहचान बनी रहे और सवर्ण हिन्दू गलती से भी अछूत को छूकर दूषित ना हो जाए.

अछूतो को कमर में पीछे झाडू बांधकर जमीन पर लटका कर चलना होता था ताकि वह पीछे दूषित हुई जो मिट्टी है उसको साफ करें जिससे कि पीछे आने वाला सवर्ण हिंदू दूषित न हो, पूना राजधानी में में अछूत को अपनी गर्दन में एक मिट्टी का बर्तन हडिया बांधकर लटकाना होता था जिसमें वह थूकता था ताकि कोई सवर्ण हिन्दू अनजाने में भी जमीन पर पड़े थूक पर पैर डालकर दूषित न हो……आगे

सन 1927 वर्ष का पहला दिन 1 जनवरी डिप्रेस्ड क्लास के लोगों ने पूना में भीमा कोरेगांव दिवस के संदर्भ में वार मेमोरियल (युद्ध स्मार) जो बना हुआ है वहां पर सभा का आयोजन था, सभा में अध्यक्ष डॉ अम्बेडकर थे, और डिप्रेस्ड क्लास के सभी गणमान्य नेता वहां पर मौजूद थे.

अंबेडकर ने सभा को करते हुए बताया हमारे समुदाय के सैकड़ों योद्धाओं ने ब्रिटिश आर्मी के साथ मिलकर लड़ाई में भाग लिया था और वे जी-जान से लड़े थे परन्तु उनको महारो को असैनिक समुदाय की उपाधि देकर बदनाम कर दिया और सेना में भर्ती से मना कर दिया, आखिर वो लोग अंग्रेजो की फौज में वह लोग क्यों गए? वो मजबूर थे, गरीब थे इसलिए वो अपना जीवन यापन करने के लिए उन्होंने ब्रिटिश आर्मी ज्वाइन की थी, आवाहन किया की महारो के ऊपर जो प्रतिबंध लगा है उसके खिलाफ लोग आवाहन करें और मजबूर करें सरकार को ब्रिटिश हुकूमत को उन पर जो रोक लगी है उसको हटाए। अम्बेडकर भीमा कोरेगांव युद्ध स्मारक का क्या महत्व था?

जरनल मैल्कम लिखते हैं –

जो महार ब्रिटिश आर्मी में शामिल हुए थे यह उनके लिए यह सुनहरा अवसर था अपनी वीरता का प्रदर्शन देश के अंदर और देश के बाहर दिखा सकें और इसके लिए ब्रिटिश हुकूमत भी उनकी मुंबई आर्मी के अधिकारियों और सिपाहियों की कर्तव्यनिष्ठा कि प्रशंसा की थी। सन 1816 में मुंबई सेना के जो बोर्ड ऑफ डारेक्टर थे उसके सेक्रटरी को पत्र लिखा था की बम्बई सेना में सभी वर्गों और सभी धर्म जैसे हिंदू, मुसलमान, यहूदी, ईसाई सब लोग शामिल थे.

महाराष्ट्र के हिन्दुओं में परवरिश (परवरि मतलब महार) की संख्या राजपूतों और कुछ सवर्ण जातियों से ज्यादा थी यह परवरिश महाराष्ट्र के दक्षिणी समुद्र तट के रहने वाले थे.

यह इतने कर्त्तव्यनिष्ठ थे की- “खाद्य सामग्री के आभाव में और बीमारियों के फैले होने के बावजूद पैदल कूच करते हुए अपनी बहादुरी का परिचय उन्होंने दिखाया था, चाहे घिर जाते, चाहे बमबारी होती या रणनीति तरीके से पीछे हटना होता, फिर भी ऐसी स्थिति में अपने अधिकारियों के साथ हमेशा एक मजबूत पिलर की तरह खड़े रहे. उन्होंने अपने रेजीमेंट का सम्मान और गौरव बनाए रखा और कोई ऐसा काम नहीं किया जिससे उनके रेजिमेंट को शर्मिंदगी का सामना सामना करना पड़े”।

1 जनवरी 1818 को नए वर्ष के दिन महार सैनिकों ने भीमा नदी के किनारे कोरेगांव युद्ध क्षेत्र में लड़ते हुए वह कर दिखाया जो उनके सम्मान में चार चांद लगा गया.

500 सैनिकों का छोटा दल था पूना के इरेगुलर हॉर्स 250 सैनिक थे, मद्रास रेजिमेंट के 24 ब्रिटिश गनर थे , कप्तान एफ.एफ. स्टान्टन था. 775 सैनिक के आसपास यह पूरे लोग थे। और पेशवा के 20 हजार घुड़सवार 8 हजार पैदल सेना थी कुल लगभग 28000 सेना थी।

घटनाक्रम

31 दिसंबर 1817 की शाम को शिरूर से कैप्टन स्टॉन्टन के साथ पूना के गैरिशन की रक्षा के लिए भेजा गया.

यह सैन्य टुकड़ी 27 मील पैदल चलकर सुबह 1 जनवरी 1818 को कोरेगाँव पहुंचे। वहां उन्हें मशहूर मराठा घुड़सवारों से घमासान लड़ाई का सामना करना पड़ा। कप्तान स्टान्टन अपनी सेना कुछ निर्देशित कर पाते उससे पाहे ही पेशवा सैनिको कि लगभग 600 सैनिकों की तीन टुकड़ी ने 3 दिशाओं से उनको घेर लिया और उनको ललकारा।

पेशवा सैनिकों के पास दो तोपे थी जो आगे बढ़ रही उनके सेना के रक्षा के लिए लगी हुई थी। रॉकेट की बौछार से स्टन्टिन की सेना को आगे बढ़नेके लिए रोक रही थी।

पूना रेजिमेंट की जो अनियमित अश्व सेना थी उनके वीरता पूर्वक प्रयास के बावजूद पेशवा के मराठा घुड़सवारों और पैदल सेना ने पूरे गांव पुरे ब्रिटिश सेना को घेर लिया था और नदी की ओर जाने वाले रास्ते को जाम कर दिया था, चढ़ाई करने वाली पेशवा की फौज ने अपनी शक्तियों का पूरा उपयोग कर सामने वालों को पीछे धकेलते हुए गांव के बीचो-बीच कुछ मजबूत और महत्वपूर्ण जगहों पर कब्जा कर लिया था और उस कब्जा को छुड़ाना लगभग असंभव था।

हर एक घर, हर एक झोपड़ी और हर गली के लिए भीषण हाथापाई और लड़ाई चल रही थी और ब्रिटिश आर्मी की सेना की भरी क्षति हो रही थी. परंतु भारतीय सैनिक जिसमे अत्यधिक संख्या में महार थे बड़ी बहदुरी और अत्यंत धैर्य के साथ जमकर लड़ रहे थे.

कप्तान स्टैनटिन ने अपने सैनिकों को आखरी दम तक और आखरी गोली तक लड़ने का आदेश दिया।

तब महार सैनिकों ने जबरदस्त उत्साह दिखाते हुए विषम परिस्थितियों में अत्यंत बहादुरी के साथ लड़ाई जारी रखी.

जब सूर्यास्त हो रहा था ब्रिटिश आर्मी ने अपने आपको बड़ी निराशाजनक और हतप्रभ स्थिति में पाया।

मराठा सेना के सेनापति मिस्टर गोखले ब्रिटिश फौज पर भारी पड़ रहे थे। रात होने साथ पुणे के मराठा सैनिकों का हमला थोड़ा ढीला पड़ा तो, ब्रिटिश सेना थोड़ा राहत महसूस की. तब केवल एक रहस्यमई अवसर ने इस घटना के लडाई चक्र को बदल दिया।

यह कहना कठिन था की पेशवा सैनिक जब जीत इतने नजदीक थे तो उन्होंने रात के 9:00 बजे के करीब गोलियां चलाना क्यों रोक दिया? और कोरेगाँव से सेना क्यों पीछे हटा ली?

इस लड़ाई में ब्रिटिश इंडियन आर्मी में लगभग 50 लोग मारे गए थे केवल जिसमें से 22 महार थे, 16 मराठा थे, 8 राजपूत थे, 2 मुसलमान थे और 1 या 2 सम्भवताः इंडियन यहूदी थे।

इस वीरतापूर्ण साहस, सैन्य शक्ति, मानसिक दृढ़ता,अनुशासित निर्भयता दर्शाने वाले कार्य ने महार सैनिकों के लिए अमर प्रसिद्धि अर्जित कर दी।

शीघ्र ही यह निर्णय लिया गया कोरेगांव की उस स्थान पर जहां पहला गोला दागा गया था वहां लगभग 32 स्कॉयर फुट का चबूतरा बनाया जाए और उस पर 65 फीट ऊंचा एक स्मृति स्तम्भ लगवाया जाए.

इसका शिलान्याश 26 मार्च 1821 को हुआ था. बहादुर सैनिको के शौर्यपूर्ण कार्य व वीरता को चिरस्थाई बनाने के लिए स्मृति चिन्ह के रूप में किया गया था और यह निर्णय लिया गया था की शहीद हुए व जो घायल हुए थे सैनिकों का नाम इस स्तम्भ पर खुदवा दिए जाएंगे। क्योकि सैनिकों की वीरता एवं कर्तव्य परायणता का ही परिणाम था जिसने जो फौज थी उसका कीर्ति और गौरव बढ़ाया था,

एक विशेष पदक भी 1851 में जारी किया गया था जिसपे एक तरफ लिखा हुआ था “टू दी आर्मी ऑफ इंडिया” और दूसरी तरफ “कोरेगाँव का चित्र” छापा गया था।

इसके बाद भी मुंबई की महार सेना ने कई लड़ाई सफलतापूर्वक लड़ी है –

जैसे- काढियावाड़ 1826, मुल्तान एवं गुजरात 1849, कन्धार 1880, अफगान फर्स्ट और सेकंड बैटल, मियानी की लड़ाई 1843, फारस की लड़ाई 1855-57 , चीन में कार्यवाही 1860 और अदन 1865 और अबिनिशिया 1867 सारी लड़ाई में इनकी भागीदारी रही थी.

जरनल चार्ल्स नैफियर( जो इन्ही के सहयोग से सिंध पर कब्ज़ाकिया था ) लिखते है “मै बम्बई सेना को सबसे अधिक प्रेम करता हूँ , मेरे मन में जब-जब मुंबई सेना के सिपाही का विचार आता है मैं उनकी प्रशंसा किए बगैर नहीं रह पाता। फिर लिखते है “16 अप्रैल 1880 को अफगानिस्तान में डबराई चौकी का बचाव करते हुए तीन महार सैनिक दुश्मनो के खेमे में घुस कर बहादुरी से तीन घाटे तक 300 सैनिको से गोलीबारी करते हुए लड़े। अंत में उनको बारूद समाप्त होने से वें शहीद हो गए, (जबकि उनको पहले ही वहां से वापस आने के लिए बता दिया गया था।)

पेशवा की राजधानी पूना में जब गांव में जब कोई सवर्ण हिंदू आम रास्ते से जा रहा हो तो किसी अछूत को उस रास्ते से जाना वर्जित था अछूत को अपनी कलाई या अपने गले में काला धागा पहनना होता था ताकि अछूत की पहचान बनी रहे और सवर्ण हिन्दू गलती से भी अछूत को छूकर दूषित ना हो जाए. अछूतो को कमर में पीछे झाडू बांधकर जमीन पर लटका कर चलना होता था ताकि वह पीछे दूषित हुई जो मिट्टी है उसको साफ करें जिससे कि पीछे आने वाला सवर्ण हिंदू दूषित न हो, पूना में अछूत को अपनी गर्दन में एक मिट्टी का बर्तन हडिया बांधकर लटकाना होता था जिसमें वह थूकता था ताकि कोई सवर्ण हिंदू अनजाने में भी जमीन पर पड़े थूक पर पैर डालकर दूषित न हो।

रेफरेंस-

अंग्रेजी वॉल्यूम 17 पार्ट 3, पेज- 3से 7

हिंदी वॉल्यूम 37 पेज- 1 से 7

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