निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति लोकतांत्रिक ढंग से हो
सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में महत्वपूर्ण निर्णय देते हुए कहा
“केंद्र सरकार को सरकारी अधिकारी (नौकरशाह) को बतौर निर्वाचन आयुक्त नियुक्त नहीं करना चाहिए”
हाल ही में गोवा निर्वाचन आयोग में एक वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी को बातौर निर्वाचन आयुक्त नियुक्त किया गया है जिसके विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई है, जिसकी सुनवाई करते हुए यह महत्वपूर्ण टिप्पड़ी की है, सुप्रीप कोर्ट ने कहा की निर्वाचन आयोग जैसी संवैधानिक निकाय जिसका प्रमुख उद्देश्य देश में लोकतांत्रिक निर्वाचन प्रणाली को सुनिश्चित एवं सुरक्षित करना है इसमें किसी सरकारी अधिकारी को नियुक्ति नहीं करना चाहिए ताकि निर्वाचन आयोग की स्वतंत्रता बरकरार रहे, इसमें कोई संदेह नहीं की भारतीय संविधान निर्माता निर्वाचन आयोग के रूप में ऐसे निकाय की स्थापना करना चाहती थी जो कार्यपालिका के हस्ताक्षेप से पूरी तरह मुक्त हो, इसी को ध्यान में रखते हुए संविधान निर्माताओं ने निर्वाचन आयोग की स्वतंत्रता और निष्पक्षता को सुनिश्चित करने के लिए संविधान में व्यापक प्रावधान किए गए हैं, दरअसल “नौकरशाह अपने कार्यकाल के दौरान केंद्र सरकार के अधीन कार्य करते हैं ऐसे में कार्यपालिका द्वारा निर्वाचन आयुक्त के तौर पर उनकी नियुक्ति चुनाव आयोग की स्वायत्तता को प्रभावित कर सकती है”, क्योंकि अक्सर ऐसा देखा जाता है केंद्र सरकार द्वारा इस प्रकार की निकायों में उन्हीं नौकरशाहों को नियुक्त किया जाता है जिनकी सत्तारूढ़ दल की विचारधारा के प्रति निष्ठा होती है ऐसे में चुनाव आयोग द्वारा निष्पक्षता एवं स्वतंत्रता से अपने संवैधानिक दायित्वयों का संचालन संदिग्ध हो जाता है और अंततः इसका नकारात्मक प्रभाव चुनाव प्रणाली कथा लोकतांत्रिक व्यवस्था पर पड़ सकता।
दरअसल भारतीय संविधान में निर्वाचन आयोग की संरचना और उसके सदस्यों की नियुक्ति को लेकर कोई स्पष्ट मानदंड निर्धारित नहीं किए हैं, अनुच्छेद 324 में कहां गया है कि राष्ट्रपति द्वारा मुख्य निर्वाचन आयुक्त तथा अन्य निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी निर्वाचन आयोग के सदस्यों की संख्या का निर्धारण राष्ट्रपति द्वारा किया जाता है, इस प्रकार संविधान में निर्वाचन आयोग की सदस्य संख्या को लेकर कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है। शुरू में निर्वाचन आयोग में एक ही सदस्य होता था जिसे मुख्य निर्वाचन आयुक्त के नाम से जाना जाता था वर्ष 1993 में संसद ने एक कानून पारित कर निर्वाचन आयोग को तीन सदस्यीय आयोग बना दिया और यह प्रावधान किया गया कि मुख्य निर्वाचन आयुक्त सहित अन्य दो निर्वाचन आयुक्तों की शक्तियां और स्थिति समान होगी तथा आयोग द्वारा बहुमत के आधार पर निर्णय लिए जाएंगे। साथ ही यह भी प्रावधान कर दिया गया की मुख्य निर्वाचन आयुक्त की सिफारिश पर ही अन्य निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी और इस सिफारिश को मानने के लिए राष्ट्रपति बाध्य होगा।
हालांकि संविधान में निर्वाचन आयोग की निष्पक्षता एवं स्वतंत्रता को लेकर व्यापक प्रावधान किए गए हैं किंतु इसके बावजूद कार्यपालिका को निर्वाचन आयोग के संगठन एवं कार्यप्रणाली को लेकर हस्ताक्षेप के अवसर प्राप्त हो जाते हैं. उदाहरण के लिए संविधान में मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्तों की योग्यता एवं कार्यकाल को स्पष्ट नहीं किया गया है संविधान में सेवानिवृत्ति के बाद निर्वाचन आयुक्तो द्वारा अन्य सरकारी नियुक्तियों को लेकर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया गया है,
राष्ट्रपति द्वारा मंत्रिपरिषद की सलाह के आधार पर ही मुख्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति की जाती है. हालांकि यह प्रावधान अवश्य है कि अन्य निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति को लेकर राष्ट्रपति मुख्य निर्वाचन आयुक्त की बाध्यकारी सलाह के आधार पर कार्य करेगा किंतु सामान्यता यह संभावना रहती है कि मुख्य निर्वाचन आयुक्त सत्तारूढ़ दल के प्रति निष्ठावान हो सकता है. यद्यपि संविधान में मुख्य निर्वाचन आयुक्त को पद से हटाने के लिए लगभग महाभियोग जैसी प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है किंतु यह प्रक्रिया केवल मुख्य निर्वाचन आयुक्त के सन्दर्भ में ही लागू होती है. संविधान में प्रावधान है कि मुख्य निर्वाचन आयुक्त के अतिरिक्त अन्य निर्वाचन आयुक्त को मुख्य निर्वाचन आयुक्त की सिफारिश पर राष्ट्रपति पद से हटा सकता है इसके अलावा निर्वाचन आयोग के लिए अलग रूप से स्टाफ का प्रावधान संवैधानिक रूप से नहीं किया गया है अतः निर्वाचन आयोग चुनाव को संपन्न कराने के लिए सरकारी कर्मचारियों एवं अधिकारियों पर निर्भर रहता है.
निर्वाचन आयोग को लेकर संवैधानिक प्रावधानों में कुछ ऐसे अंतराल अवश्य मौजूद है जो आयोग की कार्यप्रणाली में कार्यपालिका को हस्तक्षेप का अवसर प्रदान करते हैं.
इसी की एक वजह आज के समय में सामान्य जनमानस में चुनाव आयोग को लेकर तमाम तरह के आरोप लगते रहे हैं, जगह-जगह से EVM की पारदर्शिता पर सवालिया निशान लगते रहे हैं, उसकी गुणवत्ता पर संदेह और आविश्वाश जाहिर किया जाता रहा है, इसलिए जरूरत है कि “निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति लोकतांत्रिक ढंग से हो” और कुछ ठोस कानून बनाकर तथा चुनाव आयोग की शक्तियों का दायरा बढ़ाकर आयोग को वर्तमान परिस्थितियों के अनुरूप अधिक प्रसांगिक बनाए जाने की आवश्यकता है, साथ ही केंद्र सरकार सहित सभी राजनीतिक दलों को दलीय राजनीति से ऊपर उठकर भारतीय निर्वाचन प्रणाली को अधिक लोकतांत्रिक के लिए बेहतर कदम उठाने की आवश्यकता है.